Monday, August 23, 2010

Ek kavi ki kahani

ये कथा कुछ १५ वर्ष पूर्व इसी प्रकार अगस्त माह के पूर्वार्ध से प्रारंभ होती है .एक अबोध बालक अपने स्कूल के स्वतंत्रता दिवस के उत्सव के लिए तैयारी कर रहा था .
परीक्षाओं में अव्वल रहने वाला वो छात्र कलम लेकर सिर्फ अपनी साख बचाने हेतु बैठा था , उसकी समझ आज़ादी एवं उसके अभिप्राय को समझने लायक परिपक्व नहीं हुई थी
वो केवल प्रथम आने के लिए पुरस्कृत होने के साथ साथ मंच पर एक असाधारण करतल ध्वनी सुनना चाहता था. उसे सिर्फ एक सीडी चाहिए थी ,अपने अभिमान की गर्दन को थोडा और ऊँचा करने के लिए .
पर समस्या विषय की थी . उसे एक विषय चुनना था जिस पर अधिक से अधिक तालियाँ बटोरी जा सके . भगत सिंह, आज़ाद, राजनीति ,नेता आदि आदि सबकुछ उसने कागज़ पर
बस स्टैंड पर खड़ी अलग अलग रंग की बसों की तरह उतार दिया . उसमे संयोग वश कुछ पंक्तियाँ एक छंद की तरह बन गयी थी .
"अरे ये तो कविता लगती है" उसके एक मित्र ने उत्साह पूर्वक कहा
उस अबोध को इतनी ख़ुशी हुई जितनी न्युत्तन को गुरुत्व की खोज से भी नहीं हुयी होगी. उसने अगले कुछ शब्दों को उल्टा पल्टा फिर से एक नए छंद का आभास हुआ .उसके हाथ में एक नया अस्त्र आ गया था .पुरे भाषण को उलट पलट कर उसने नयी कविता बना दी . यहाँ लिखी गयी कविता और बनायीं गयी कविता के अंतर को समझ लेना आवश्यक है .
उसकी मेहनत का फल उसे मिला ,व्यासपीठ पर खड़ा वो चारो ओर से हो रही तालियों की बारिश में सराबोर हो रहा था,इस सत्य से अनजान की व्यासपीठ पर खड़े वक्ता के लिए तालियाँ बजाना ये अब एच्छिक विषय नहीं है .ये केवल एक सदाचार रह गया है . अदाहरण स्वरुप हम नेताओ की सभा को ले सकते है .
खैर उसे पुरस्कृत करने हेतु वरिष्ठ साहित्यकार श्री शरद जोशी मच पर खड़े थे ,वो मुख पर अभिमान का पावडर लगा कर मंच पर पंहुचा . श्री जोशी बोले

"ये कविता तुमने लिखी थी ? " उसकी मुस्कान की लम्बाई स्वीकृति में सर हिलाते हुए ओर भी बढ़ गयी .
"अगली बार अच्छी कविता लिखना " कहते हुए उन्होंने श्री कृष्ण सरल की एक पुस्तक उसके हाथ में थमा दी .

वो अचरज से भरा मंच से उतर आया ,तालियाँ अब भी गूंज रही थी .
घर जाकर जब पुस्तक को उसने खोला तो समझ आया की वो जिसे ज्ञान गंगा समझ रहा था वो बस एक ठहरे हुए पानी का ताल था जिसमे नीरसता की काई जमी थी.
अब्वो एक पाठक अधिक हो गया , शैली शब्द ,अलंकार ,इत्यादीत्यादी सुधार लाकर वो फिर एक नयी कविता के साथ खड़ा था उसी मंच पर उन्ही श्रोताओं के समक्ष तालियाँ तो बजनी ही थी ,जो बजी भी .
वो अब तक असाधारण नहीं था ,पर साधारण से कुछ अधिक अवश्य था .समय के साथ कभी उसकी कवितायेँ मित्रों के प्रेम पत्रों की शोभा बढ़ाती तो कभी SMS बनकर भ्रमण करती.
वो बालक से युवक हो गया था मित्रो के लिए प्रेम पत्र लिखने वाला ,खुद के लिए प्रेम नहीं पा सका .क्योंकि जो वो लिखता था . वो उसका आचरण नहीं था .
स्वयं की लेखनी से स्वयं ही असंतुष्ट होकर एक दिन उसने इस लेखनी से अपने सारे सम्बन्ध तोड़ दिए . परिपक्वता की राहों में ठोकर खाते हुए ,वो आज भी अपने अन्दर एक कवी तलाशता रहता है . पर उसकी लेखनी क्षुब्ध होकर उससे दूर भागती है . कहती है "मुर्ख!! कोई व्यक्ति असाधारण नहीं होता ,उसके कर्म साधारण या असाधारण होते है " .

वो आज भी एक साधारण व्यक्ति ही है पर प्रयत्न करता है की कर्म असाधारण हो सके . उसे याद है पाठक के रूप में दो पंकियाँ उसने पढ़ी थी

"कलम देश की वह शक्ति है ,भाव जगाने वाली
दिल ही नहीं दिमागों में भी आग लगाने वाली"

इन पंक्तियों का केवल शाब्दिक अर्थ निकाल कर वो भी एक दिन आग लगाने चला था ... काश!! की उसने सोचा होता की आग में आखिर क्या जलने वाला है ........

अंश


ANSH

अब भी मै जिंदा हूँ

ऐ कातिल नहीं शिकवा मुझे तेरे इरादों से

बस अफ़सोस इतना है कि अब भी मै जिंदा हूँ

नहीं मुमकिन दुआओं से कि अब राहत मिले मुझको

कोई तो बद्दुआ दे दे, कि अब भी मै जिंदा हूँ

घावों से मेरे ज़िन्दगी रिस रिस के बह गयी

बेबस तड़पने के लिए , अब भी मै जिंदा हूँ

ऐ कातिल तेरे बाजू , तेरे दिल की नहीं सुनते

तेरे दिल को ज़रा तैयार कर , अब भी मै जिंदा हूँ

ठहरों फरिश्तों , मुझको ज़रा सी सांस लेने दो

मेरा हिसाब बाकि है , की अब भी मै जिंदा हूँ

अंश

मेरा जीवन

मेरा जीवन है किरणों सा ,हर क्षण रोशन कर जाता हूँ

हर भोर को जिंदा होता हूँ ,और साँझ ढले मर जाता हूँ

मै उस जल की प्रतिमा हूँ, जिसका रंग नहीं आकार नहीं

स्वछन्द पवन का हूँ सहचर, मुझ पर निज का अधिकार नहीं

भाषाहीन आवाहन करके मै नित्य तुझे जगाता हूँ

हर भोर को जिंदा होता हूँ ,और साँझ ढले मर जाता हूँ१

चलता हूँ चलता रहता हूँ ,चलना ही मेरी किस्मत है

मुझको तुझसे कोई प्रेम नहीं, यूँही जलना मेरी आदत है

प्रेम ह्रदय में कुछ दिन रहकर प्रेमकथा हो जाता है

प्रेमी बातों में कुछ दिन रहकर यादों में खो जाता है

आगे में भी बढ़ता हूँ ,पर रोज़ वहीँ मिल जाता हूँ

हर भोर को जिंदा होता हूँ ,और साँझ ढले मर जाता हूँ२

Ansh

इंतज़ार

कहते हैं आंसूओ से होती है तौहीन मोहब्बत की
हम रो नहीं पाते, बस तेरा इंतज़ार करते है

जानते है नहीं मुमकिन तेरा हमसफ़र होना
अकेले पर चल नहीं पाते, तेरा इंतज़ार करते है

बिन बोले गर खुदा दुआ कुबूल करता है
नहीं फ़रियाद कर पाते , बस इंतज़ार करते है

उम्मीद मै की ख्वाब में तुम आओगे कभी
रात भर सो नहीं पाते , बस इंतज़ार करते है

ज़िन्दगी छुटी तेरे दामन की उम्मीद में
अब मौत भी नहीं आती , बस इंतज़ार करते है

अंश